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Monday 12 November 2012

आओ उल्लू सीधा करें

दिवाली के स्वागत के लिए मेरे मुहल्ले के सभी घरों पर हेम तारों की तरह भकर-भकर करने वाले विद्युत चालित जुगनुओं की कंदमें डाल दी गई हैं, सिवाय मेरे घर के. ये मत समझें कि मैं बहुत ही गरीब हूँ, लिहाजा रोशनियों के ये जाल मैं अपने किराये के घर पर नहीं डाल सकता, ना ही मुझे अपनी गर्वीली ग़रीबी पर गुमान है. बात ये है कि इस काम के पीछे मेरी शातीराना चतुराई और गुप्त मंशा काम कर रही है. अन्यथा कुछ सौ रूपये खर्च...
कर मैं भी ये कर सकता था. बात ये है कि बचपन से सुना और चित्रों मे देखा है कि लक्ष्मी का वाहन उल्लू होता है, लगे हाथ यह भी कि उल्लू महाराज को रात में ही दिखाई पडता है ( कृपया विज्ञान का सहारा ना लें, विज्ञान के हिसाब से यह तथ्यात्मक भूल नजर आ सकता है) गांव में बचपन में दीवाली के मुत्तलिक एक कथा भी सुनी थी. कथा का सारांश है कि राजकुमारी का हीरे का हार खो गया. ( वैसे हीरे का हार राजकुमारी का ही खो सकता था, क्योंकि न तो कथा में और ना ही जीवन में सामान्य नारियों को हीरे का हार होता है और ना ही उसकी खोने की चिंता या परेशानी. हाँ सपनों में ये चाहे जितना अपने परदेशी पति को वापस बुला लाने के लिए कौए के सोने से चोंच मढवा दें या अपने पतिदेव को सोने की थाली में परोस कर खिला लें) हुआ ये था कि राजकुमारी का हार कोई चिल या कौआ सांप समझ कर उडा ले गया था,पर चूंकि वह सांप था नहीं,लिहाजा हार कौए के लिए जी का जंजाल बन गया. इसी समय उसे एक गरीब के छप्पर पर चूहे की भागदौड नजर आ गई और उसने हार को उसी छप्पर पर,जैसा कि दुनिया के विकसित देश भारत में कचरे का करते हैं, डम्प कर चूहे को उठा लिया. हार घर की नई नवेली समझदार बहू के हाथ लग गई. जैसा कि हम सभी लोग हिंदी साहित्य पढ कर और मम्बईया हिंदी फिल्में देखकर यह जानते हैं कि गरीब लोग ईमानदार होते हैं, यह नई नवेली दुल्हन भी ईमानदार थी. लेकिन इससे ज्यादा उसे यह पता रहा होगा कि राजसी चीजें सामान्य लोग नहीं पचा सकते. ( आखिरी पंक्ति कथा में नहीं है, मैं अंदाजन कह रहा हूँ ) फिर भी उसने हार के जरिए अपनी गरीबी से निकलने की जुगत लगाने की सोची. जैसा कि अक्सर ऐसे मामले में होता है, यहाँ भी हुआ. अर्थात समूचे राज्य में यह मुनादी
करवा दी गई कि जो कोई भी हार देगा उसकी एक मांग राजा की तरफ से पूरी की जाएगी. इस् गरीब की लुगाई ने यह शर्त रखी कि दिवाली की रात उसके सिवाय किसी के घर दीप ना जलाया जाय. लाचार लक्ष्मी रात भर अंधेरे में भटक कर अंततः उस गरीब के घर प्रवेश करने पर मजबूर हुई, जाहिर है गरीब धनी हो गया. मेरा भी इस पुरे मुआमले में ऐसा ही रूख है. बस यहाँ समीकरण पलट गया है. लोककथा में लक्ष्मी अंधेरे से घबरा कर गरीब के घर घुसी थी, यहाँ मैं उम्मीद कर रहा हूँ कि रोशनी से लक्ष्मी की आंखें चौंधिया जाएगी और वह शकून के लिए मेरे गरीबखाने में पनाह लेने के लिए मजबूर होंगी. दूसरी चीज जो मैंने आधुनिक सोर्सवादी या जुगाडवादी व्यवस्था से सीखा है कि अगर किसी मंत्री या अफसर को पटाना हो तो उसके संतरी या ड्राईवर को, जो शक्ल से उल्लूनुमा (ध्यान रहे अक्ल से बिल्कुल नहीं)होता है, को पहले पटाना जरूरी होता है. चूंकि उल्लू को अंधेरा पसंद है, लिहाजा उनके स्वागत के लिए मैंने अंधेरे का जुगाड कर रखा है. मुख्तसर कि मैंने अपनी तरफ से दोनों जुगाड कर लिए हैं. आपके दुआ की दरकार है.

Tuesday 2 October 2012

हो रहा भारत निर्माण

कोलतार की चमकती सड़क।
गॉव में नहीं, गॉव के बाहर -
दूर बहुत, शहर के पास
                             
                              सांप

                                   की

                                        तरह

                                                बल

                                                      खाती

                                        मचलती

                       इठलाती

                              चली

                                     जा

                                           रही

                                                   है ...

सोने के कटोरे में
रखे दूध - जैसी
स्वर्णिम - दुधिया ,
महलों की श्रृंखला -
चकमक , लकदक ,
न जाने किसे ललचा रही है !
मैं अपनी  '' करिज्मा '' पर फटफटाता
बढ़ा जा रहा हूँ , कि तभी
दिख जाता है मुझे
त्रिलोचन का हरचरना।
वही फटा सुथन्ना ,
जेठ की धूप को ओढ़े ,
बगटुट भागा जा रहा है ...
मैं रूककर आवाज़ देता हूँ -
हकबकाया मुझे देखता है ,
हाथ की दो - एक किताबों को ,
बड़ा प्रसन्न , अद्भुत , आश्चर्य  -
कहता है , बाबुजी  , तीन दिन ...
नहीं , चार दिन से उस वाले मकान में ---
दूर उंगलियों से जतलाता भी है ...
काम कर रहा था ,  घर छोड़
यहाँ बियावान में।
इस्कूल जाने लगा है ना अब !
इतना कह चल दिया धांय से ...
समझ गया मुन्ने में बसती है
इसकी छोटी सी जान।
फटफटी में किक लगाईं , रेडियो से
सुनाई पड़ा प्रचार का अन्तिमांश -
हो रहा भारत निर्माण।   

शमशेर की कविता

चिकनी चांदी -  सी माटी
वह देह धूप में गीली
लेटी  है हँसती - सी।

Friday 28 September 2012

संतो अचरज भेल भारी


मुझे एक बात समझ में नहीं आती, वैसे तो मुझे और भी ढेर सारी बातें समझ में नहीं आती है। खैर जाने दीजिये उससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता क्योंकि अपना देश चलाने वालों को भी बहुत सारी बातें समझ में नहीं आती, वो तो देश ही है कि रुकता ही नहीं, चला जा रहा है बगटुट वो भी दुलकी नहीं सरपट चाल  में। बहरहाल जो बात मुझे समझ में नहीं आती वो ये कि जब हम जनता लोगों ने खुद ही अपने को जनार्दन बनाने   वाले चक्कर  में फंसाने  से इन्कार कर दिया है तो ये ससुरी सरकार और ससुरे पक्ष प्रतिपक्ष के नेता क्यों हमें जनार्दन बना कर ये नारा लगाना चाहते हैं कि देखो चू ... को। कुछ लोंगों ने  कहा कि देश में तड़ातड़ घोटाला हो रहा है , विपक्ष ने भी कहा कि धक्कापेल बेमानी हो रही है। हमने मान लिया कि घोटाला हो रहा है, बेमानी हो रही है। फिर सरकार ने कहा कि कोई घोटाला नहीं हुआ, कोई बेमानी नहीं हुई, भाई घर -परिवार, बाल -बच्चे तो सब के होते हैं। हमने मान  लिया कि आप ठीक कह रहे हैं। अब जब हम '' जो हुकुम माई बाप ''वाली मुद्रा में खुद ही रहते है तो फिर हमें जोतने के लिए इतने नाटक की क्या जरुरत ? रही चुनाव में वोट देने की बात तो चूँकि हम वोट का आचार नहीं डाल सकते,चुनांचे वोट ही डाल देते हैं। सरकार और विपक्ष का तो ये हाल है कि '' तुम मेरी खुजाओ और मैं तुम्हारी खुजाता हूँ।'' यहाँ तो सबको दाद है। और दाद का मजा तो खुजाने -खुजवाने में ही मिलता है। लगता है कि मैं फिर बहक रहा हूँ, वैसे बतकही का मजा तो बहकने - बहकाने में ही है जैसे दाद का खुजाने - खुजवाने में।

जब से होश संभाला है स्कूल की किताबों से लेकर गाँव के पंचायतों की कचर पचर तक एक शब्द बड़ा आवाज़े बुलन्द सुनता रहा हूँ, वो शब्द है लोकतंत्र। बचपन में बाबा दादा से माने पूछे तो वे मायने भी समझाने लगे। पल्ले तो कुछ नहीं पड़ा पर उन्होंने जो कहा मान लिया। यहाँ भी ''जो आज्ञा माई बाप '' वाला भाव।बस एक बात याद  रही कि हम यानी जनता इस देश के मालिक हैं। वैसे भी सामंती समाज में मालिक वाला फिकरा जल्दी याद हो जाता है सो रह गया याद। मेरी तरह और बच्चों के साथ भी लगता है बाप दादों ने ग़लत शिक्षा की यही साजिश की है और पिछले दो दशकों में जवान हुई पीढ़ी, जो तमाम षड्यंत्रों के बावजूद भी जवान हो ही गयी है, को झुनझुने वाले लोकतंत्र की जगह पर असली लोकतंत्र में मजा आने लगा है।

यहाँ तक तो फिर भी गनीमत थी, मुझे डर इस बात का होने लगा है कि अपने देश के महान नेताजी  लोग भी कहीं इस झांसे में ना आ जाएँ और हमारे लोकतंत्र को सचमुच लोक का तंत्र बनाने ना निकल पड़ें। अगर ऐसा हुआ तो खट खप कर खाने कमाने वालों की बड़ी दुर्गति होगी।

देश के एक माननीय मंत्री (क्योंकि मंत्रियों के अलावे बाकी लोग अमान्नीय होते हैं, मतलब जिसका मान नहीं होता जैसे बचपन में कब्बडी के खेल में छोटे बच्चे का दूध भात होता था। वो इतना छोटा होता था कि उसके खेलने का कोई अर्थ नहीं था लेकिन उसे मना करने पर वह विशेष स्थान की सारी  ताकत गले में भरकर इतने जोर से रोता था कि जहाँ कहीं भी उसका माई बाप हो सुन ले। लिहाज़ा बड़े बच्चे एक दूसरे को कनखी मारते और वह अमान्नीय दूध भात खेल का नकली हिस्सा बन जाता। उम्मीद है माननीय का फंडा क्लियर हो गया होगा।) ने कहा कि जनता सब भूल जाती है। जैसे पिछले घोटाले भूल गयी वैसे ये भी भूल जाएगी। और आने वाले दिनों के भी। आखिरी पंक्ति मैं कह रहा हूँ, हालाँकि कहना उन्हें चाहिये था। इसका अर्थ है कि ये अभी पूर्णतः जननेता नहीं हुए हैं।वैसे परेशान  होने की जरुरत नहीं हो जाएँगे - रसरी आवत जात ते शिल पर परत निशान।  जनता पर नेता का भरोसा होता है,होना चाहिये। लेकिन समूचा हो। ये क्या साहब कि भरोसा कर भी रहे हैं और डर भी रहे हैं। फिर भी इन नेताजी के बयान से इतनी तस्सली तो हो गयी कि हमारे वर्तमान लोकतंत्र को किसी किस्म का खतरा नहीं है और जनता वाला हल्ला एक मजाक है जिसे गाँव शहर के लोंडों लपाड़ों ने यूँ ही किसी सठियाये बूढ़े को दिक् करने के लिए लिहोलिहो शैली में छोड़ दिया है।

ख़ैर सभी लोग जनता को जगाने की कवायद में लगे हैं, और चूँकि जनता को जगाना एक राजनीतिक  क्रिया है लिहाज़ा कुछ लोग जो अभी तक बिना किसी राजनीतिक दल के जनता जगा रहे थे उन्हें अचानक से  ध्यान आया कि जनता जग नहीं रही है। खोजबीन की गयी,कवि -कलाकार, डॉक्टर,वकिल वगेरह दौड़ाए गए। पता चला कि जनता को जगाना राजनीतिक क्रिया है। वहाँ के बड़ों सयानों ने माथा ठोंक लिया -   जभी तो कहें कि  हमारी इतनी कोशिशों के बाद भी जनता जाग  क्यों नहीं रही थी, बताओ तो भला बिना राजनीति के जनता जगती है। फिर क्या दन देना जूस पीकर जनता जगा दिया। तो भैया ई ससुरी जनता तो गरीब की लुगाई है, बेचारी एक घड़ी के लिए भी सो नहीं पाती। आंख लगी नहीं कि कोई भी आकर ठेलठालकर खटिया पर जगह बना लेता है और जब तक ये गरीब की लुगाई नींद से भरे पपोटे वाले अपनी ऑंखें मिचमिचाये तब तक गंदगी बहाकर कोई जा चुका होता है। 
         तो बात चली थी लोकतंत्र की,वैसे भी  गटरपचिया बाबुओं के बीच आजकल ये शब्द बड़े जोर से फ़ैशन में है। ऐसे लोग लोकतंत्र के हो हल्ले के बीच सचमुच के लोकतंत्र की बात कर रहे हैं। लेकिन जनता जानती है कि जो है वही  असली लोकतंत्र है क्योंकि इसमें थाने का दारोगा और हवालात में बंद चोर, कबिनेट का मंत्री और संगीन जुर्म में अदालत के चक्कर कट रहा अपराधी एक साथ खीसें निपोर कर मस्त चकाचक फोटो खीचवा सकता है। इस पर भी लोग कहते हैं कि ये असली लोकतंत्र नहीं है। कुल जमा बात इतनी कि किसी को परेशान होने की जरुरत नहीं, देश में ठाठ से लोकतंत्र है और उसकी सवारी करते हुए देश  हवा से बातें कर रहा है। अब अगर किसी को लोकतंत्र दिखाई नहीं पड़ता तो उनसे पूछा जाना चाहिए कि  तुमने कभी हवा देखा है।नहीं!

 तो लोकतंत्र की हवा पर सवार देश कैसे दिखेगा! ये बतकुच्चन मैं इसलिए कर रहा हूँ कि कुछ देर पहले एक उत्साही युवक मेरे पास आए और लगे मुझे समझाने, समझाने क्या रगेदने कि साहब देश में लोकतंत्र कमजोर है,कि खतरे में है,कि चारो तरफ अंधेर है,कि ये वो फलां ढिमका तीन तेरह। मैंने भी सोचा झाड़े रहो पट्ठे। फिर पलट कर उसी को लोकतंत्र के लपेटे में ले लिया। और अब आपलोगों को भी उसी लपेटे में ले रहा हूँ। लोकतंत्र में रहते हुए ये बताना बड़ा मजेदार लगता है की हम लोतंत्र में रह रहे हैं। लोग झुठमुठ इस शब्द पर बहस कर शब्द को ही विलुप्त करने पर लगे हैं। ऐसे लोगों के लिए ही तुलसी बाबा कह गए थे -

हरित भूमि त्रीण  संकुलित समुझि परे नाहि पंथ।

अति पासंड विवाद ते विलुप्त होहिं सदग्रंथ।

 

 

Thursday 27 September 2012

अकेले का निरर्थशास्त्र

बचपन में वैसे तो सभी कक्षाओं में दिक्कत होती थी। लेकिन खास कर हिंदी व्याकरण की क्लास में ये परेशानी
ज्यादा थी। अक्सर विपरीतार्थक शब्दों और विपरीत लिंगों में हम बच्चे मात खा जाते थे। मास्टरजी हाथ में छड़ी लेकर अपने ही माथे पर बिना झंडे का डंडा फहराते हुए बड़े गंभीर आवाज़ में सवाल करते  ( हालाँकि इन मास्टरजी की आवाज़ निकलते ही गंभीरता का सारा जाल छिन्न भिन्न हो जाता था, क्योंकि जब वे बोलते थे तो लगता था कि कोई बड़ा तरबूज भीतर से सड़ गया हो। ) - बताओ तो लड़की का विपरीतार्थक शब्द क्या होता है ? बिना पल भर देर के सम्मिलित कंठ का जबाव होता - पन्नीजी (पंडितजी ) लड़का। जाहिर है दूसरी आवाज़ पीठ पर पड़ने वाले छड़ी की होती थी - सटाक। काश कि पंडितजी को हमारा जबाव सही लगता।
वर्षों से एक आकांक्षा वाले विज्ञापन पर नजर जाती है, जो ग़लती से आज भी पुराना नहीं पड़ा है  - सुन्दर, सुशील, पढ़ी लिखी, गृहकार्य दक्ष  कन्या हेतु  फलां फलां टाईप का वर चाहिए। यहाँ मेरा मकसद  वरों के टाईप पर बात करना नहीं है। मैं सोचता हूँ कि यदि यही सन्देश उलट कर लड़कों के लिए लिखे जाते तो ये कैसा होता ! एक कुरूप, शैतान, मुर्ख ( हालाँकि इनके पास ढेर सारी  खरीद कर जुटाई गई डिग्रियाँ हैं। ), घर - बाहर , लोक - परलोक सभी बिगड़ चुके  वर हेतु गाय चाहिए जो खून और दूध दोनों निकलवा कर भी सिंग ना चलाए। चुनांचे इस गाय के सिंग ना हो।
 मेरी शादी नहीं हुई है। स्पष्ट है कि इस बात पर मुझे बहुत घमंड या नाज नहीं है। यदि होता तो मैं इसी बात को कुछ इस तरह कहता - अभी तक कोई ऐसी बोद्धिक लड़की नजर ही नहीं आई , लिहाजा अभी तक मैंने शादी नहीं की है। मैं परिभाषा विशेष के लिहाज से अकेला हूँ। अभी तक यह तय नहीं पाया है कि ये अकेलापन अटलजी (भूतपूर्व प्रधानमंत्री और अभूतपूर्व कवि ) टाईप है या परसाईजी ( हिंदी के महान  व्यंग्य लेखक, जिन्हें बाद के व्यंग्य लेखकों ने एक मात्र महान होने के लिए अभिशप्त रख छोड़ा है, इस बात से वे खुश नहीं होंगे बल्कि उनकी आत्मा को गहन गंभीर पीड़ा होती होगी ) की तरह। अटलजी की तरह हिन्दू होने के कारण मैं अकेला नहीं  हूँ। ये भी नहीं कह सकता कि हिन्दू नहीं हूँ ( क्योंकि मैंने अभी तक गोमांस का स्वाद नहीं चखा है।)
दूसरी तरफ परसाई जी फरमाते हैं कि जब तक जिन्दगी की परेशानियाँ हल करते हुए शादी के लिए तैयार होने की स्थिति आई तब तक उन भांजों की शादी की उम्र हो चुकी थी जिनकी कमोबेश जिम्मेवारी इन पर थी।    यानी  अगर घर में दूसरे  की जिम्मेवारी उठाने वाली उम्र हो जाय और जिम्मेवारी उठाने की क्षमता हासिल करते तक
 उम्र का अंकगणित आपको दोखा दे दे तो दुसरे को जिम्मेवारी उठाते हुए देखने की ख़ुशी के लिए आप अपने दुःख का  ( ध्यान रहे तमाम प्रगतिशीलता के बावजूद मैं शादी और सुख की एक साथ कल्पना करने में असमर्थ हूँ। ) त्याग कर सकते हैं। इस लिहाज से ये फैसला स्वार्थ के साथ जुड़ जाता है। मैं इन किसी भी स्थिति में फिट नहीं बैठता। अव्वल तो मैं सामाजिक परिभाषा में शादी के योग्य नहीं हूँ क्योंकि बीबी अगर जिम्मेवारी होती है तो मैं क़ायदे - बेकायदे  दोनों से वह जिम्मेवारी उठाने में असमर्थ हूँ। ( कुछ शादीशुदा मित्र तो कहते हैं कि कभी - कभी लाड से भरकर बीबी खुद को गोद में उठाने की डिमांड भी करती है , यहाँ तो कमबख्त खुद का ही वजन इतना ज्यादा है कि उठाए नहीं उठता , उसी के बोझ में निखट्टू होने की शर्म मिला कर धरती मे दबे जाते हैं, फिर भला बीबी को कहाँ की ताकत से उठाएँगे। ) दुसरे प्रेमचंद के होरी ने बताया है कि मर्द साठे  पे पाठे होता है। ( अलग बात है कि  वह साठ  के बहुत पहले टें बोल गया। कारण सुधि पाठकों को पता है। ) लिहाजा उम्र की कोई बात नहीं। ( यह नहीं कहूँगा कि  देखे केवल मन। ) मुझे तो लगता है कि यह मुहावरा ही गलत है कि लड़कियों की उम्र और आदमियों की तनख्वाह नहीं पूछनी चाहिए। बात को उलट कर कहने का वक्त आ गया है। अब लड़कों की उम्र और औरतों की तनख्वाह नहीं पूछने का  समय आ गया है। ढेर सारे युवा जो सरकारी युवा की सूची से खदेड़े जा चुके हैं किसी तरह रंग रोगन की तकनीक से जवान दिखने के लिए मजबूर हैं , कारण बेरोजगार - से हैं और बेबीबी जी रहे हैं।
ऐसे लोगों से आप उनकी उम्र पूछें तो वे एक अजीब से शर्म और अपराध भाव से आकाश देखते हुए पान गुटखे से अनार के दाने बने दांत को गाभिन गधी की तरह चीहारते हुए कांख खुजाने लगते हैं। हालाँकि ना तो उम्र की आकाशवाणी होती है और ना ही बूढ़े बोतू की तरह गंधाते उनके बगलों से उम्र का अता पता मालूम होता है। पर ये सभी आंगिक अभिनय उनके बोडमपन की नहीं , उनकी लाचारी को सामने लाते हैं। लाचारी कैसी तो विशेष उम्र के बाद तक भी कुंवारे रह जाने की ( या भय कुंवारे मर जाने की। ) दूसरी तरफ शहरों महानगरों की लडकियाँ महिलाएं हैं। क्या चुस्ती फुर्ती है साहब। फुर्र से चिड़िया की तरह सुबह  होते ही घोसले से उड़ जाती है, दिन भर कर्मक्षेत्र में चहकती रहती है, महीने भर बाद मुट्ठी भर ( इसे अभिधा में नहीं मुहावरे में समझा जाय। ) रुपया लती है। आप इनकी उम्र नहीं तनख्वाह पूछना चाहते हैं। पर शर्म , संकोच और संस्कार  ( जो तीनो ही नकली हैं ) के मारे पूछ नहीं पाती ( हमेशा अनुप्रास की छटा ही नहीं छाती , कभी कभी मारती भी है )। 





















बूंद अघात



सरकार की घोषणा है कि वो आर्थिक सुधारों के मोर्चे से पीछे नहीं हटेगी। बड़ी अच्छी बात है।
हमारे गाँव में तो होली,दशहरे और मुर्रहम पर होने वाले अखाड़े में या अली या बजरंगवली कह कर
ताल ठोंक कर कूद जाने वाला सीकिया पहलवान भी मोटे तगड़े पहलवान के सामने से नहीं हटता
था, बस शर्त एक होती थी कि उसके पीछे ''लगे रहो पट्ठे '' का नारा लगाने वाली भीड़ उसके मिट्टी
पकड़ने तक भी नारा लगाती रहे। नहीं ये मत समझिये कि मुझे पता नहीं है कि हमारे प्रधान मंत्री
अखाड़े के नहीं अर्थशास्त्र के चैम्पियन हैं। प्रसंगवश मेरे पूज्य पिता जी ( पिताओं की त्रासदी है कि
वे पूज्य भर होकर रह जाने के लिए अभिशप्त हैं ) भी अपने छोटे से गॉंव के पहले अर्थशास्त्र के एम
ए हैं। उनका सारा अर्थशास्त्र मैंने घर में ही गड़बड़ाते देखा है। एक छोटी सी बात जो सभी समझते
हैं वो ये कि किताबों में जिन्दगी की व्याख्या हो सकती है पर जिन्दगी के जरिये किताबों की
पुनर्व्याख्या भी होती है। अंग्रेजी में लिखे बड़े - बड़े आर्थिक सिद्धांतों से , कीन्स और स्मिथ
की थ्योरी से मुझे नहीं लगता है कि मेरे गॉंव के नागो की कोई समस्या हल हो जाएगी जो हल हाथ
में लिए दिन रात खट खप कर सूरत से हूबहू हल की तरह दिखने लगा है। दिक्कत ये है कि हम
पूंजावादी समाज की नक़ल या सच कहूँ तो नकेल के चक्कर में फंस चुके हैं। ऐसा नहीं कि ये
छोटी सी बात हमारे कर्ता धर्ता नहीं समझते, जाहिर है मुझ जैसे गँवार से बेहतर समझते हैं।
लेकिन, यहाँ शायद एक लेकिन है। और वह लेकिन है पूंजीवादी देशों और समाजों का चक्र। आप
कह सकते हैं कि बेटा ब्लॉग पर बैठ कर कुछ भी ठांस देना बड़ा आसान है, अर्थशास्त्र का अ नहीं
समझते और चले हो देश की अर्थनीति पर बात करने। तो हुजूरे आला आपकी बातें सोलहो आने सच।
लेकिन मैं कह ये रहा था कि मेरे पिता जी का अर्थशास्त्र अक्सर उनको धोखा देता रहा
और आज भी दे रहा है जबकि बगल के घरों में इतिहास,साहित्य आदि पढ़ कर आई ए , बी ए पास
करने वालों को उतने ही संसाधन में कभी घर के आर्थिक मोर्चे पर लड़खड़ाते नहीं देखा। किताबी
जोड़ बाकी और जिन्दगी की जोड़ बाकी में यही मूल अंतर है।
अब कुछ देर तक मैं पिता जी को छोड़ रहा हूँ नहीं तो कहेंगे कि बुढ़ापे में दो पैसे का सुख तो दे नहीं सकते ऊपर से भचर -भचर कर रहे हो। तो बात शुरू हुई थी मोर्चे से नहीं हटने को लेकर। मेरे गॉँव के अखाड़े वाले सीकिया पहलवान और यहाँ के मामले में मूल अंतर ये है कि वहाँ पहलवान को पीछे से भारी समर्थन मिलता था जबकि यहाँ समर्थन देने वाले भी हौसला पश्त करने में लगे हैं। ऐसे में भी अर्थशास्त्र का ये खिलाडी अगर हरदी नहीं बोलता तो मानना पड़ेगा कि वंदे में दम है।
मेरी एकछात्रा हैं उन्हें अमरीका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति ओबामा बहुत पसंद हैं। अपनी इस पसंद का कई बार वो मेरे सामने इजहार करती रहती थीं। मुझे लगा कि ओबामा की खास खास नीतियों से ये
प्रभावित होंगी। तो एक दिन यूँ ही मैंने उनसे पूछ लिया की बताइये ओबामा की कौन सी पॉलिसी
आपको पसंद है? ये बात उन दिनों की है जब भाईजान नए - नए प्रेसिडेंट बने थे। उनका जबाब
था - वो कितना क्यूट,हैंडसम, फिट, और स्मार्ट लगता है ना सर! आई लाइक दिस गाई। मतलब
ये कि कभी-कभी भंगिमाएँ भी बड़े काम की होती हैं। पर हम तो इस बात के लिए भी तरश कर
रह जाते हैं काश कभी तो हमारा कोई प्रधानमंत्री होता जो चाल ढाल में ओबामा,ब्लेयर,बुश,क्लिंटन नुमा होता। सनद रहे कि इन सभी नामों के चाल ढाल तो भारत में चल सकते हैं पर एकाध के चरित्र
चलने में संदेह है। अपने प्रधान ने भी परमाणु करार में ऐसी चुस्ती दिखाई थी, तब कितने तो
युवा लगने लगे थे ये कि मन मिस्टर प्राइम मिनिस्टर कहने के लिए हुड़कने लगा था, जबकि इस
ससुरी अंग्रेजी में मेरा लिख लोढ़ा पढ़ पत्थर वाला हाल है। लगता है फिर एक बार माननीय प्रधानमंत्री
को मिस्टर प्राइम मिनिस्टर कहने का वक़्त आने वाला है, कारण के ग़लत सही को गोली मारें।
कभी तो लगे कि घर के मुखिया को रीढ़ है।
रही मेरे जैसे बेकार लोगों की बात तो मैं इतना ही अर्थशास्त्र जानता और जानना चाहता हूँ कि
हे बादशाह सलामत जो भी नीति बनाएं उससे मुझ और मेरे गॉव के नागो जैसे लोगों के दो वक़्त
के रोटी पानी का जुगाड़ बना रहे , वैसे ये भी पता है कि सरकार नीतियाँ बनाने का जुगाड़ करती
है रोटी-पानी का जुगाड़ खुद ही करना पड़ता है।
बात ये है कि बात शुरू से ही ग़लत है। वस्तुतः मेरे भीतर ये बात थी कि मैं प्रधानमंत्री की आलोचना
करूँ। बात बड़ी सीधी है, मेरे जैसा टुच्चा आदमी खुद तो बड़ा बन नहीं सकता, लिहाजा इस
सिद्धांत में विश्वास करता है कि बड़े की आलोचना करो और मन ही मन बड़े बनो। लेकिन ये
संत कबीर और भक्त तुलसी का जमाना तो है नहीं , ये तो चकाचक लोकतंत्र है। और मैं डर गया,
लोकतंत्र ने ऐसा डपटा कि जो कुछ दिमाग में था कहीं और घुस गया। अब तो मुझे पता ही नहीं कि
क्या सोच कर लिखने बैठा था और क्या क्या लिख गया। फिर भी इसे मिटाऊंगा नहीं,कम से
कम डर की हकलाहट तो इसमें दर्ज है। वैसे भी मैं ये जनता हूँ कि और जो भी हो हमारे प्रधान संत
टाईप आदमी हैं और मैं दुष्ट,कुटिल खल,कामी टाईप। ऐसे ही महान संतों की सहिष्णुता के विषय में
भक्त शिरोमणि तुलसी कह गए हैं -
बुंद अघात सहहिं गिरि तैसे , खल के वचन संत जन जैसे।

जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी



 
माननीय प्रधानमंत्री महोदय ने बजा फ़रमाया है - पैसे पेड़ पर नहीं उगते। बचपन में कभी और बच्चों की तरह मेरी भी इच्छा होती थी कि मैं भी वैसे ही कपडे या जूते पहनूं जैसे कि गॉंव के और दूसरे साधनसम्पन्न बच्चे पहना करते थे। तब माँ भी कुछ ऐसा ही जबाव देती थी - घर में पैसे नहीं हैं, जो है वही पहनो। और लगे हाथ ये भी कि पैसे पेड़ पर नहीं लगते। लेकिन माँ के कहने के अंदाज में और प्रधान जी के अंदाज -ए -बयां में एक भारी अंतर है। माँ की आवाज़ में एक दर्द होता था,भीतरकी गहरी पीड़ा और कुछ हद तक अपनी अक्षमता का एहसास। और इसी बेचारगी से पैदा हुई वो आवाज़ होती थी जिसे बचपन की नासमझी वाले उस उम्र में भी मेरे और भाइयों के साथ हम बिना किसी विशेष प्रयत्न के समझ लेते थे। पर हमारे प्रधान जी की आवाज़ में कोई पीड़ा या असहायता या लाचारगी का भाव नहीं बल्कि एक खास तरह की गुर्राहट है - डपटने और धमकाने का अंदाज़। मुझे नहीं मालूम कि खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से देश का भला होगा या देशवाशियों को भाला।ये तो मुझ बेपढ़े लिखे गँवार से भरपेट अर्थशास्त्र पढ़े माननीय ज्यादा समझते हैं। मेरा हाथ वैसे भी आंकड़ों के मामले में बहुत तंग है। जब भी कोई दनादन मेरे मुँह पर आंकड़ा ठांसने लगता है तो मेरी घिग्घी बंध जाती है। तो श्रीमान यदि विकास का गणित समझाने लगेंगे तो मुझ नासमझ के पल्ले कुछ भी नहीं पड़ने वाला।मैं तो उतना ही समझ पाता हूँ जितना '' आंखिन देखि '' है '' कागद लेखी '' नहीं। मैं तो रोज देखता हूँ कि एक तरफ मेरे देश में वैसे लोग भी रह रहे है जैसी कि कभी महान कल्पना के क्षणों में हमारे महान संस्कृत के आचार्यों ने स्वर्ग का निर्माण किया था और दूसरी तरफ वैसी दुनिया जिसे तुलसीदास जैसे हिन्दी कवियों ने अपनी निजी तकलीफों से गुजरकर रचा था। एक तरफ संसार के तमाम ठाठ और दूसरी तरफ कुत्ते-बिल्लियों, कीड़े-मकोड़ों से भी बदतर जीवन स्थिति। माफ़ कीजिये पढ़कर लग सकता हो कि कोई गरीब हिंदी कवि फिर गरीबी बेचने निकला है। प्रसंगवश मुझे ये भी पता है कि सेक्स के बाद या बराबर इस देश में बेचने के लिए सबसे अच्छा आईटम गरीबी ही है। पिछले पैंसठ सालों में पूरी दुनिया में हमारे भाग्यविधाताओं ने सबसे ज्यादा इसे ही बेचा है। लगे हाथ ये भी समझ लिया जाय कि संस्कृत उस जमाने के इलिट क्लास की भाषा थी, जैसे कि आजकल अंग्रेजी है। इस संस्कृत पर ब्राह्मन क्षत्रियों का अधिकार था, शूद्रों और नारियों का नहीं। आज अंग्रेजी पर नव ब्राह्मणों क्षत्रियों का अधिकार है। ये नया वर्ग वही है जो चमाचम घरों में रहता है, हवाई जहाजों पर उड़ता है, बहुत लम्बी गाड़ी में अकेले बैठकर ज्यादा से ज्यादा सड़क घेरता है, मॉलों में जाकर लम्बे-लम्बे थैलों में मनीष मल्होत्रा या किसी और के डिजायनर क्लॉथ कलेक्ट करता है, रात में मंहगी विदेशी शराबोंके साथ रेव पार्टी करता है,हर हफ्ते पुरुष और महिला दोनों हाथ में लपेटे गए
कमरों को साइज़ और सुविधा के हिसाब से बदलता रहता है ... हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता।
दूसरी तरफ तुलसीदासों की दुनिया है - जीविकाविहीन लोग सीद्यमान सोच बस, कहें एक एकन सों ''कहाँ जाई का करी।'' गॉवों से लेकर महानगरों तक बिना किसी विशेष प्रयत्न के इन दरिद्रनारायणों को देखा पहचाना जा सकता है। कहाँ जाएँ,क्या करें की यह तकलीफ आज ज्यादा बड़ी हो चुकी है। साहब ये हर इन्सान जानता है कि पैसे पेड़ पर नहीं उगते हैं। माँ के इस झुंझलाहट पर भी मैं बचपन में उनसे सहज भोला सवाल कर लेता था कि पैसे आते कहाँ से हैं? उतना ही सहज जबाव होता था - सरकार मशीन से छापती है। दूसरा प्रश्न - फिर कम क्यों छापती है, मनमर्जी से क्यों नहीं छापती? माँ का अर्थशास्त्र भी हनुमान चालीसा,सूर्य पुराण , बृहस्पति कथा से लेकर सुन्दर कांड तक ही सीमित थी, लिहाजा उनकी आँखें शून्य में कहीं खो जातीं - क्या जाने क्यों नहीं छापती, पापा से पूछ लेना। तो मेहरबान ये है मेरा सपरिवार अर्थशास्त्र का सम्पूर्ण ज्ञान! ऐसे ज्ञान के बल क्या तो मैं FDI का समर्थन करूँगा और क्या तो विरोध करूँगा? इसलिए मामला विदेशी निवेश का, कम से कम मेरे सन्दर्भ में नहीं है। मैं कुछ सामान्य सी बातें जानना चाहता हूँ। मसलन किताब में पढ़ा था कि इस देश ने '' विकास के नीचे टपकन सिद्धान्त '' (ट्रिकल डाउन थ्योरी ) को अपनाया है। यानि विकास की वह प्रक्रिया जिसमें ऊपर का विकास इस उम्मीद में किया जाता है कि धीरे-धीरे विकास टपककर नीचे तक पहुँच जायेगा। यही वह नुक्ता है जहाँ मैं पश्त हो जाता हूँ। ये विकास इतनी खुबसूरत नवयौवना होती है कि जो ससुर इसकी कमर में हाथ डालता है वह उसे सीने से चिपका कर रख लेना चाहता है - डिच देकर भाग जाने वाली प्रेमिका की तरह। क्या माननीय प्रधानमंत्री जी ये बताने का कष्ट करेंगे कि पैंसठ सालों के बाद और कितने साल हमारे रहनुमाओं को चाहिए जिससे देश के आखिरी आदमी के जीभ तक विकास के शहद की एकाध बूंद टपक कर पहुँच जाय , जो उजभक की तरह मुंह खोले है और कुत्ते के पेशाब सी गरीबी से उसे बचाने की कोशिश कर रहा है। अब इसके लिए बहुत जल्दी मचाने की जरुरत भी नहीं माननीय भाग्यविधाता लोग ढंग से सोच लें, खूब आराम से हिसाब किताब कर लें, इत्मीनान से जोड़ बाकी कर लें और फिर हम गरीबों से कुछ दो - चार सालों का और समय मांग लें , लेकिन हे कर्ता - धर्ता , हे भाग्यविधाता , हे हमारे रहनुमाओ अब तो बता दो कि कब   तक ?
हम गरीबों ने अपनी तरफ से कोशिश कर के देख लिया, आप सरकार की राह तकते गाना भी गया -बड़ी देर भाई नंदलाला, तेरी राह तके बृजबाला। बावजूद इसके हम गरीबी बिछा कर और गरीबी को ही ओढ़ कर सोने के लिए अभिशप्त हैं। विकास, झूठ नहीं बोलूँगा देखता तो मैं भी हूँ पर जैसे ही छूने के लिए हाथ बढाता हूँ की ससुरी किसी विकास पुरुष की सती नारी की तरह आँखें दिखाकर हमें डांट देती है - हाथ मत लगाना , जानते नहीं मैं सती नारी हूँ, परनारी। तुम्हें इस देश का कायदा नहीं मालूम - सपनेहु पर नारी नहीं हेरी। इच्छा तो होती है की व्याख्या परसाई जी वाली सुना दूँ- सपने में भी कोई पर नारी नहीं, अपनी ही लगती है। पर ताव
खाकर रह जाता हूँ क्योकि इस नारी के पति पुरुषों की शक्ति तो महाभारत के पांडवों से भी ज्यादा है।
हम गरीब आपको वोट देते हैं, वैसे आपने इतना गरीब बना कर रखा है कि इसके सिवा कुछ दे भी नहीं सकते।
कुछ लोग हमें बरगलाने की कोशिश भी करते हैं कि अलां और फलां तुम कितने तो टैक्स देते हो, क्या हुआ कि
तुम्हारी इन्कम उतनी नहीं कि तुम सीधे इन्कम टैक्स दे सको , पर उस मद तो मुस मद तो तुस मद में तुम भरते तो हो ही। लेकिन माई बाप, अगर कहीं इश्वर है तो उसकी कसम ( वैसे मजे की बात है कि हम दोनों को ही पता है कि वह नहीं है ) मैं कभी इस भुलावे में नहीं आया और कभी अपनी गरीबी पर मुझे ऐसा गुमान नहीं हुआ।
मैं अदना सा जीव न तो आपको एक वोट के बल पर (वह कमबख्त भी संसद में नहीं घर यानी बूथ में है ) सरकार गिराने की धमकी दे सकता हूँ और सच जानिये ना संतोष जी की तरह कमीज उतारकर आपके सामने विरोध
दर्ज कर सकता हूँ। ( डर तो अपनी जगह है ही , मेरा डील डौल भी सलमान खान की तरह नहीं है की जहाँ तहाँ शर्ट उतारी जाय , भुखमरे का पेट निकलना कितना विरोधाभासी है न ! ) तो एक धर्मप्राण देश में मेरे लिए एक आखिरी रास्ता बचता है, जिसकी वास्तविकता पर विश्वास करने वाला वैसे आज बहुत कम लोग
रह गए हैं , भागवान का डर दिखाना, जो कलिकाल में तुलसी बाबा ने किया था -
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी , सो नृप अवसि नरक अधिकारी।
कोई बुरा ना माने दशहरा है।

Wednesday 26 September 2012

धूमिल की कविता

पता नहीं कितनी रिक्तता थी-
जो भी मुझमे होकर गुजरा -रीत गया
पता नहीं कितना अन्धकार था मुझमे
मैं सारी उम्र चमकने की कोशिश में
बीत गया

भलमनसाहत
और मानसून के बीच खड़ा मैं
ऑक्सीजन का कर्ज़दार हूँ
मैं अपनी व्यवस्थाओं में
बीमार हूँ