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Thursday 27 September 2012

अकेले का निरर्थशास्त्र

बचपन में वैसे तो सभी कक्षाओं में दिक्कत होती थी। लेकिन खास कर हिंदी व्याकरण की क्लास में ये परेशानी
ज्यादा थी। अक्सर विपरीतार्थक शब्दों और विपरीत लिंगों में हम बच्चे मात खा जाते थे। मास्टरजी हाथ में छड़ी लेकर अपने ही माथे पर बिना झंडे का डंडा फहराते हुए बड़े गंभीर आवाज़ में सवाल करते  ( हालाँकि इन मास्टरजी की आवाज़ निकलते ही गंभीरता का सारा जाल छिन्न भिन्न हो जाता था, क्योंकि जब वे बोलते थे तो लगता था कि कोई बड़ा तरबूज भीतर से सड़ गया हो। ) - बताओ तो लड़की का विपरीतार्थक शब्द क्या होता है ? बिना पल भर देर के सम्मिलित कंठ का जबाव होता - पन्नीजी (पंडितजी ) लड़का। जाहिर है दूसरी आवाज़ पीठ पर पड़ने वाले छड़ी की होती थी - सटाक। काश कि पंडितजी को हमारा जबाव सही लगता।
वर्षों से एक आकांक्षा वाले विज्ञापन पर नजर जाती है, जो ग़लती से आज भी पुराना नहीं पड़ा है  - सुन्दर, सुशील, पढ़ी लिखी, गृहकार्य दक्ष  कन्या हेतु  फलां फलां टाईप का वर चाहिए। यहाँ मेरा मकसद  वरों के टाईप पर बात करना नहीं है। मैं सोचता हूँ कि यदि यही सन्देश उलट कर लड़कों के लिए लिखे जाते तो ये कैसा होता ! एक कुरूप, शैतान, मुर्ख ( हालाँकि इनके पास ढेर सारी  खरीद कर जुटाई गई डिग्रियाँ हैं। ), घर - बाहर , लोक - परलोक सभी बिगड़ चुके  वर हेतु गाय चाहिए जो खून और दूध दोनों निकलवा कर भी सिंग ना चलाए। चुनांचे इस गाय के सिंग ना हो।
 मेरी शादी नहीं हुई है। स्पष्ट है कि इस बात पर मुझे बहुत घमंड या नाज नहीं है। यदि होता तो मैं इसी बात को कुछ इस तरह कहता - अभी तक कोई ऐसी बोद्धिक लड़की नजर ही नहीं आई , लिहाजा अभी तक मैंने शादी नहीं की है। मैं परिभाषा विशेष के लिहाज से अकेला हूँ। अभी तक यह तय नहीं पाया है कि ये अकेलापन अटलजी (भूतपूर्व प्रधानमंत्री और अभूतपूर्व कवि ) टाईप है या परसाईजी ( हिंदी के महान  व्यंग्य लेखक, जिन्हें बाद के व्यंग्य लेखकों ने एक मात्र महान होने के लिए अभिशप्त रख छोड़ा है, इस बात से वे खुश नहीं होंगे बल्कि उनकी आत्मा को गहन गंभीर पीड़ा होती होगी ) की तरह। अटलजी की तरह हिन्दू होने के कारण मैं अकेला नहीं  हूँ। ये भी नहीं कह सकता कि हिन्दू नहीं हूँ ( क्योंकि मैंने अभी तक गोमांस का स्वाद नहीं चखा है।)
दूसरी तरफ परसाई जी फरमाते हैं कि जब तक जिन्दगी की परेशानियाँ हल करते हुए शादी के लिए तैयार होने की स्थिति आई तब तक उन भांजों की शादी की उम्र हो चुकी थी जिनकी कमोबेश जिम्मेवारी इन पर थी।    यानी  अगर घर में दूसरे  की जिम्मेवारी उठाने वाली उम्र हो जाय और जिम्मेवारी उठाने की क्षमता हासिल करते तक
 उम्र का अंकगणित आपको दोखा दे दे तो दुसरे को जिम्मेवारी उठाते हुए देखने की ख़ुशी के लिए आप अपने दुःख का  ( ध्यान रहे तमाम प्रगतिशीलता के बावजूद मैं शादी और सुख की एक साथ कल्पना करने में असमर्थ हूँ। ) त्याग कर सकते हैं। इस लिहाज से ये फैसला स्वार्थ के साथ जुड़ जाता है। मैं इन किसी भी स्थिति में फिट नहीं बैठता। अव्वल तो मैं सामाजिक परिभाषा में शादी के योग्य नहीं हूँ क्योंकि बीबी अगर जिम्मेवारी होती है तो मैं क़ायदे - बेकायदे  दोनों से वह जिम्मेवारी उठाने में असमर्थ हूँ। ( कुछ शादीशुदा मित्र तो कहते हैं कि कभी - कभी लाड से भरकर बीबी खुद को गोद में उठाने की डिमांड भी करती है , यहाँ तो कमबख्त खुद का ही वजन इतना ज्यादा है कि उठाए नहीं उठता , उसी के बोझ में निखट्टू होने की शर्म मिला कर धरती मे दबे जाते हैं, फिर भला बीबी को कहाँ की ताकत से उठाएँगे। ) दुसरे प्रेमचंद के होरी ने बताया है कि मर्द साठे  पे पाठे होता है। ( अलग बात है कि  वह साठ  के बहुत पहले टें बोल गया। कारण सुधि पाठकों को पता है। ) लिहाजा उम्र की कोई बात नहीं। ( यह नहीं कहूँगा कि  देखे केवल मन। ) मुझे तो लगता है कि यह मुहावरा ही गलत है कि लड़कियों की उम्र और आदमियों की तनख्वाह नहीं पूछनी चाहिए। बात को उलट कर कहने का वक्त आ गया है। अब लड़कों की उम्र और औरतों की तनख्वाह नहीं पूछने का  समय आ गया है। ढेर सारे युवा जो सरकारी युवा की सूची से खदेड़े जा चुके हैं किसी तरह रंग रोगन की तकनीक से जवान दिखने के लिए मजबूर हैं , कारण बेरोजगार - से हैं और बेबीबी जी रहे हैं।
ऐसे लोगों से आप उनकी उम्र पूछें तो वे एक अजीब से शर्म और अपराध भाव से आकाश देखते हुए पान गुटखे से अनार के दाने बने दांत को गाभिन गधी की तरह चीहारते हुए कांख खुजाने लगते हैं। हालाँकि ना तो उम्र की आकाशवाणी होती है और ना ही बूढ़े बोतू की तरह गंधाते उनके बगलों से उम्र का अता पता मालूम होता है। पर ये सभी आंगिक अभिनय उनके बोडमपन की नहीं , उनकी लाचारी को सामने लाते हैं। लाचारी कैसी तो विशेष उम्र के बाद तक भी कुंवारे रह जाने की ( या भय कुंवारे मर जाने की। ) दूसरी तरफ शहरों महानगरों की लडकियाँ महिलाएं हैं। क्या चुस्ती फुर्ती है साहब। फुर्र से चिड़िया की तरह सुबह  होते ही घोसले से उड़ जाती है, दिन भर कर्मक्षेत्र में चहकती रहती है, महीने भर बाद मुट्ठी भर ( इसे अभिधा में नहीं मुहावरे में समझा जाय। ) रुपया लती है। आप इनकी उम्र नहीं तनख्वाह पूछना चाहते हैं। पर शर्म , संकोच और संस्कार  ( जो तीनो ही नकली हैं ) के मारे पूछ नहीं पाती ( हमेशा अनुप्रास की छटा ही नहीं छाती , कभी कभी मारती भी है )। 





















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