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Friday 28 September 2012

संतो अचरज भेल भारी


मुझे एक बात समझ में नहीं आती, वैसे तो मुझे और भी ढेर सारी बातें समझ में नहीं आती है। खैर जाने दीजिये उससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता क्योंकि अपना देश चलाने वालों को भी बहुत सारी बातें समझ में नहीं आती, वो तो देश ही है कि रुकता ही नहीं, चला जा रहा है बगटुट वो भी दुलकी नहीं सरपट चाल  में। बहरहाल जो बात मुझे समझ में नहीं आती वो ये कि जब हम जनता लोगों ने खुद ही अपने को जनार्दन बनाने   वाले चक्कर  में फंसाने  से इन्कार कर दिया है तो ये ससुरी सरकार और ससुरे पक्ष प्रतिपक्ष के नेता क्यों हमें जनार्दन बना कर ये नारा लगाना चाहते हैं कि देखो चू ... को। कुछ लोंगों ने  कहा कि देश में तड़ातड़ घोटाला हो रहा है , विपक्ष ने भी कहा कि धक्कापेल बेमानी हो रही है। हमने मान लिया कि घोटाला हो रहा है, बेमानी हो रही है। फिर सरकार ने कहा कि कोई घोटाला नहीं हुआ, कोई बेमानी नहीं हुई, भाई घर -परिवार, बाल -बच्चे तो सब के होते हैं। हमने मान  लिया कि आप ठीक कह रहे हैं। अब जब हम '' जो हुकुम माई बाप ''वाली मुद्रा में खुद ही रहते है तो फिर हमें जोतने के लिए इतने नाटक की क्या जरुरत ? रही चुनाव में वोट देने की बात तो चूँकि हम वोट का आचार नहीं डाल सकते,चुनांचे वोट ही डाल देते हैं। सरकार और विपक्ष का तो ये हाल है कि '' तुम मेरी खुजाओ और मैं तुम्हारी खुजाता हूँ।'' यहाँ तो सबको दाद है। और दाद का मजा तो खुजाने -खुजवाने में ही मिलता है। लगता है कि मैं फिर बहक रहा हूँ, वैसे बतकही का मजा तो बहकने - बहकाने में ही है जैसे दाद का खुजाने - खुजवाने में।

जब से होश संभाला है स्कूल की किताबों से लेकर गाँव के पंचायतों की कचर पचर तक एक शब्द बड़ा आवाज़े बुलन्द सुनता रहा हूँ, वो शब्द है लोकतंत्र। बचपन में बाबा दादा से माने पूछे तो वे मायने भी समझाने लगे। पल्ले तो कुछ नहीं पड़ा पर उन्होंने जो कहा मान लिया। यहाँ भी ''जो आज्ञा माई बाप '' वाला भाव।बस एक बात याद  रही कि हम यानी जनता इस देश के मालिक हैं। वैसे भी सामंती समाज में मालिक वाला फिकरा जल्दी याद हो जाता है सो रह गया याद। मेरी तरह और बच्चों के साथ भी लगता है बाप दादों ने ग़लत शिक्षा की यही साजिश की है और पिछले दो दशकों में जवान हुई पीढ़ी, जो तमाम षड्यंत्रों के बावजूद भी जवान हो ही गयी है, को झुनझुने वाले लोकतंत्र की जगह पर असली लोकतंत्र में मजा आने लगा है।

यहाँ तक तो फिर भी गनीमत थी, मुझे डर इस बात का होने लगा है कि अपने देश के महान नेताजी  लोग भी कहीं इस झांसे में ना आ जाएँ और हमारे लोकतंत्र को सचमुच लोक का तंत्र बनाने ना निकल पड़ें। अगर ऐसा हुआ तो खट खप कर खाने कमाने वालों की बड़ी दुर्गति होगी।

देश के एक माननीय मंत्री (क्योंकि मंत्रियों के अलावे बाकी लोग अमान्नीय होते हैं, मतलब जिसका मान नहीं होता जैसे बचपन में कब्बडी के खेल में छोटे बच्चे का दूध भात होता था। वो इतना छोटा होता था कि उसके खेलने का कोई अर्थ नहीं था लेकिन उसे मना करने पर वह विशेष स्थान की सारी  ताकत गले में भरकर इतने जोर से रोता था कि जहाँ कहीं भी उसका माई बाप हो सुन ले। लिहाज़ा बड़े बच्चे एक दूसरे को कनखी मारते और वह अमान्नीय दूध भात खेल का नकली हिस्सा बन जाता। उम्मीद है माननीय का फंडा क्लियर हो गया होगा।) ने कहा कि जनता सब भूल जाती है। जैसे पिछले घोटाले भूल गयी वैसे ये भी भूल जाएगी। और आने वाले दिनों के भी। आखिरी पंक्ति मैं कह रहा हूँ, हालाँकि कहना उन्हें चाहिये था। इसका अर्थ है कि ये अभी पूर्णतः जननेता नहीं हुए हैं।वैसे परेशान  होने की जरुरत नहीं हो जाएँगे - रसरी आवत जात ते शिल पर परत निशान।  जनता पर नेता का भरोसा होता है,होना चाहिये। लेकिन समूचा हो। ये क्या साहब कि भरोसा कर भी रहे हैं और डर भी रहे हैं। फिर भी इन नेताजी के बयान से इतनी तस्सली तो हो गयी कि हमारे वर्तमान लोकतंत्र को किसी किस्म का खतरा नहीं है और जनता वाला हल्ला एक मजाक है जिसे गाँव शहर के लोंडों लपाड़ों ने यूँ ही किसी सठियाये बूढ़े को दिक् करने के लिए लिहोलिहो शैली में छोड़ दिया है।

ख़ैर सभी लोग जनता को जगाने की कवायद में लगे हैं, और चूँकि जनता को जगाना एक राजनीतिक  क्रिया है लिहाज़ा कुछ लोग जो अभी तक बिना किसी राजनीतिक दल के जनता जगा रहे थे उन्हें अचानक से  ध्यान आया कि जनता जग नहीं रही है। खोजबीन की गयी,कवि -कलाकार, डॉक्टर,वकिल वगेरह दौड़ाए गए। पता चला कि जनता को जगाना राजनीतिक क्रिया है। वहाँ के बड़ों सयानों ने माथा ठोंक लिया -   जभी तो कहें कि  हमारी इतनी कोशिशों के बाद भी जनता जाग  क्यों नहीं रही थी, बताओ तो भला बिना राजनीति के जनता जगती है। फिर क्या दन देना जूस पीकर जनता जगा दिया। तो भैया ई ससुरी जनता तो गरीब की लुगाई है, बेचारी एक घड़ी के लिए भी सो नहीं पाती। आंख लगी नहीं कि कोई भी आकर ठेलठालकर खटिया पर जगह बना लेता है और जब तक ये गरीब की लुगाई नींद से भरे पपोटे वाले अपनी ऑंखें मिचमिचाये तब तक गंदगी बहाकर कोई जा चुका होता है। 
         तो बात चली थी लोकतंत्र की,वैसे भी  गटरपचिया बाबुओं के बीच आजकल ये शब्द बड़े जोर से फ़ैशन में है। ऐसे लोग लोकतंत्र के हो हल्ले के बीच सचमुच के लोकतंत्र की बात कर रहे हैं। लेकिन जनता जानती है कि जो है वही  असली लोकतंत्र है क्योंकि इसमें थाने का दारोगा और हवालात में बंद चोर, कबिनेट का मंत्री और संगीन जुर्म में अदालत के चक्कर कट रहा अपराधी एक साथ खीसें निपोर कर मस्त चकाचक फोटो खीचवा सकता है। इस पर भी लोग कहते हैं कि ये असली लोकतंत्र नहीं है। कुल जमा बात इतनी कि किसी को परेशान होने की जरुरत नहीं, देश में ठाठ से लोकतंत्र है और उसकी सवारी करते हुए देश  हवा से बातें कर रहा है। अब अगर किसी को लोकतंत्र दिखाई नहीं पड़ता तो उनसे पूछा जाना चाहिए कि  तुमने कभी हवा देखा है।नहीं!

 तो लोकतंत्र की हवा पर सवार देश कैसे दिखेगा! ये बतकुच्चन मैं इसलिए कर रहा हूँ कि कुछ देर पहले एक उत्साही युवक मेरे पास आए और लगे मुझे समझाने, समझाने क्या रगेदने कि साहब देश में लोकतंत्र कमजोर है,कि खतरे में है,कि चारो तरफ अंधेर है,कि ये वो फलां ढिमका तीन तेरह। मैंने भी सोचा झाड़े रहो पट्ठे। फिर पलट कर उसी को लोकतंत्र के लपेटे में ले लिया। और अब आपलोगों को भी उसी लपेटे में ले रहा हूँ। लोकतंत्र में रहते हुए ये बताना बड़ा मजेदार लगता है की हम लोतंत्र में रह रहे हैं। लोग झुठमुठ इस शब्द पर बहस कर शब्द को ही विलुप्त करने पर लगे हैं। ऐसे लोगों के लिए ही तुलसी बाबा कह गए थे -

हरित भूमि त्रीण  संकुलित समुझि परे नाहि पंथ।

अति पासंड विवाद ते विलुप्त होहिं सदग्रंथ।

 

 

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