कमरों को साइज़ और सुविधा के हिसाब से बदलता रहता है ... हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता।
दूसरी तरफ तुलसीदासों की दुनिया है - जीविकाविहीन लोग सीद्यमान सोच बस, कहें एक एकन सों ''कहाँ जाई का करी।'' गॉवों से लेकर महानगरों तक बिना किसी विशेष प्रयत्न के इन दरिद्रनारायणों को देखा पहचाना जा सकता है। कहाँ जाएँ,क्या करें की यह तकलीफ आज ज्यादा बड़ी हो चुकी है। साहब ये हर इन्सान जानता है कि पैसे पेड़ पर नहीं उगते हैं। माँ के इस झुंझलाहट पर भी मैं बचपन में उनसे सहज भोला सवाल कर लेता था कि पैसे आते कहाँ से हैं? उतना ही सहज जबाव होता था - सरकार मशीन से छापती है। दूसरा प्रश्न - फिर कम क्यों छापती है, मनमर्जी से क्यों नहीं छापती? माँ का अर्थशास्त्र भी हनुमान चालीसा,सूर्य पुराण , बृहस्पति कथा से लेकर सुन्दर कांड तक ही सीमित थी, लिहाजा उनकी आँखें शून्य में कहीं खो जातीं - क्या जाने क्यों नहीं छापती, पापा से पूछ लेना। तो मेहरबान ये है मेरा सपरिवार अर्थशास्त्र का सम्पूर्ण ज्ञान! ऐसे ज्ञान के बल क्या तो मैं FDI का समर्थन करूँगा और क्या तो विरोध करूँगा? इसलिए मामला विदेशी निवेश का, कम से कम मेरे सन्दर्भ में नहीं है। मैं कुछ सामान्य सी बातें जानना चाहता हूँ। मसलन किताब में पढ़ा था कि इस देश ने '' विकास के नीचे टपकन सिद्धान्त '' (ट्रिकल डाउन थ्योरी ) को अपनाया है। यानि विकास की वह प्रक्रिया जिसमें ऊपर का विकास इस उम्मीद में किया जाता है कि धीरे-धीरे विकास टपककर नीचे तक पहुँच जायेगा। यही वह नुक्ता है जहाँ मैं पश्त हो जाता हूँ। ये विकास इतनी खुबसूरत नवयौवना होती है कि जो ससुर इसकी कमर में हाथ डालता है वह उसे सीने से चिपका कर रख लेना चाहता है - डिच देकर भाग जाने वाली प्रेमिका की तरह। क्या माननीय प्रधानमंत्री जी ये बताने का कष्ट करेंगे कि पैंसठ सालों के बाद और कितने साल हमारे रहनुमाओं को चाहिए जिससे देश के आखिरी आदमी के जीभ तक विकास के शहद की एकाध बूंद टपक कर पहुँच जाय , जो उजभक की तरह मुंह खोले है और कुत्ते के पेशाब सी गरीबी से उसे बचाने की कोशिश कर रहा है। अब इसके लिए बहुत जल्दी मचाने की जरुरत भी नहीं माननीय भाग्यविधाता लोग ढंग से सोच लें, खूब आराम से हिसाब किताब कर लें, इत्मीनान से जोड़ बाकी कर लें और फिर हम गरीबों से कुछ दो - चार सालों का और समय मांग लें , लेकिन हे कर्ता - धर्ता , हे भाग्यविधाता , हे हमारे रहनुमाओ अब तो बता दो कि कब तक ?
हम गरीबों ने अपनी तरफ से कोशिश कर के देख लिया, आप सरकार की राह तकते गाना भी गया -बड़ी देर भाई नंदलाला, तेरी राह तके बृजबाला। बावजूद इसके हम गरीबी बिछा कर और गरीबी को ही ओढ़ कर सोने के लिए अभिशप्त हैं। विकास, झूठ नहीं बोलूँगा देखता तो मैं भी हूँ पर जैसे ही छूने के लिए हाथ बढाता हूँ की ससुरी किसी विकास पुरुष की सती नारी की तरह आँखें दिखाकर हमें डांट देती है - हाथ मत लगाना , जानते नहीं मैं सती नारी हूँ, परनारी। तुम्हें इस देश का कायदा नहीं मालूम - सपनेहु पर नारी नहीं हेरी। इच्छा तो होती है की व्याख्या परसाई जी वाली सुना दूँ- सपने में भी कोई पर नारी नहीं, अपनी ही लगती है। पर ताव
खाकर रह जाता हूँ क्योकि इस नारी के पति पुरुषों की शक्ति तो महाभारत के पांडवों से भी ज्यादा है।
हम गरीब आपको वोट देते हैं, वैसे आपने इतना गरीब बना कर रखा है कि इसके सिवा कुछ दे भी नहीं सकते।
कुछ लोग हमें बरगलाने की कोशिश भी करते हैं कि अलां और फलां तुम कितने तो टैक्स देते हो, क्या हुआ कि
तुम्हारी इन्कम उतनी नहीं कि तुम सीधे इन्कम टैक्स दे सको , पर उस मद तो मुस मद तो तुस मद में तुम भरते तो हो ही। लेकिन माई बाप, अगर कहीं इश्वर है तो उसकी कसम ( वैसे मजे की बात है कि हम दोनों को ही पता है कि वह नहीं है ) मैं कभी इस भुलावे में नहीं आया और कभी अपनी गरीबी पर मुझे ऐसा गुमान नहीं हुआ।
मैं अदना सा जीव न तो आपको एक वोट के बल पर (वह कमबख्त भी संसद में नहीं घर यानी बूथ में है ) सरकार गिराने की धमकी दे सकता हूँ और सच जानिये ना संतोष जी की तरह कमीज उतारकर आपके सामने विरोध
दर्ज कर सकता हूँ। ( डर तो अपनी जगह है ही , मेरा डील डौल भी सलमान खान की तरह नहीं है की जहाँ तहाँ शर्ट उतारी जाय , भुखमरे का पेट निकलना कितना विरोधाभासी है न ! ) तो एक धर्मप्राण देश में मेरे लिए एक आखिरी रास्ता बचता है, जिसकी वास्तविकता पर विश्वास करने वाला वैसे आज बहुत कम लोग
रह गए हैं , भागवान का डर दिखाना, जो कलिकाल में तुलसी बाबा ने किया था -
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी , सो नृप अवसि नरक अधिकारी।
कोई बुरा ना माने दशहरा है।
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