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Thursday 27 September 2012

बूंद अघात



सरकार की घोषणा है कि वो आर्थिक सुधारों के मोर्चे से पीछे नहीं हटेगी। बड़ी अच्छी बात है।
हमारे गाँव में तो होली,दशहरे और मुर्रहम पर होने वाले अखाड़े में या अली या बजरंगवली कह कर
ताल ठोंक कर कूद जाने वाला सीकिया पहलवान भी मोटे तगड़े पहलवान के सामने से नहीं हटता
था, बस शर्त एक होती थी कि उसके पीछे ''लगे रहो पट्ठे '' का नारा लगाने वाली भीड़ उसके मिट्टी
पकड़ने तक भी नारा लगाती रहे। नहीं ये मत समझिये कि मुझे पता नहीं है कि हमारे प्रधान मंत्री
अखाड़े के नहीं अर्थशास्त्र के चैम्पियन हैं। प्रसंगवश मेरे पूज्य पिता जी ( पिताओं की त्रासदी है कि
वे पूज्य भर होकर रह जाने के लिए अभिशप्त हैं ) भी अपने छोटे से गॉंव के पहले अर्थशास्त्र के एम
ए हैं। उनका सारा अर्थशास्त्र मैंने घर में ही गड़बड़ाते देखा है। एक छोटी सी बात जो सभी समझते
हैं वो ये कि किताबों में जिन्दगी की व्याख्या हो सकती है पर जिन्दगी के जरिये किताबों की
पुनर्व्याख्या भी होती है। अंग्रेजी में लिखे बड़े - बड़े आर्थिक सिद्धांतों से , कीन्स और स्मिथ
की थ्योरी से मुझे नहीं लगता है कि मेरे गॉंव के नागो की कोई समस्या हल हो जाएगी जो हल हाथ
में लिए दिन रात खट खप कर सूरत से हूबहू हल की तरह दिखने लगा है। दिक्कत ये है कि हम
पूंजावादी समाज की नक़ल या सच कहूँ तो नकेल के चक्कर में फंस चुके हैं। ऐसा नहीं कि ये
छोटी सी बात हमारे कर्ता धर्ता नहीं समझते, जाहिर है मुझ जैसे गँवार से बेहतर समझते हैं।
लेकिन, यहाँ शायद एक लेकिन है। और वह लेकिन है पूंजीवादी देशों और समाजों का चक्र। आप
कह सकते हैं कि बेटा ब्लॉग पर बैठ कर कुछ भी ठांस देना बड़ा आसान है, अर्थशास्त्र का अ नहीं
समझते और चले हो देश की अर्थनीति पर बात करने। तो हुजूरे आला आपकी बातें सोलहो आने सच।
लेकिन मैं कह ये रहा था कि मेरे पिता जी का अर्थशास्त्र अक्सर उनको धोखा देता रहा
और आज भी दे रहा है जबकि बगल के घरों में इतिहास,साहित्य आदि पढ़ कर आई ए , बी ए पास
करने वालों को उतने ही संसाधन में कभी घर के आर्थिक मोर्चे पर लड़खड़ाते नहीं देखा। किताबी
जोड़ बाकी और जिन्दगी की जोड़ बाकी में यही मूल अंतर है।
अब कुछ देर तक मैं पिता जी को छोड़ रहा हूँ नहीं तो कहेंगे कि बुढ़ापे में दो पैसे का सुख तो दे नहीं सकते ऊपर से भचर -भचर कर रहे हो। तो बात शुरू हुई थी मोर्चे से नहीं हटने को लेकर। मेरे गॉँव के अखाड़े वाले सीकिया पहलवान और यहाँ के मामले में मूल अंतर ये है कि वहाँ पहलवान को पीछे से भारी समर्थन मिलता था जबकि यहाँ समर्थन देने वाले भी हौसला पश्त करने में लगे हैं। ऐसे में भी अर्थशास्त्र का ये खिलाडी अगर हरदी नहीं बोलता तो मानना पड़ेगा कि वंदे में दम है।
मेरी एकछात्रा हैं उन्हें अमरीका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति ओबामा बहुत पसंद हैं। अपनी इस पसंद का कई बार वो मेरे सामने इजहार करती रहती थीं। मुझे लगा कि ओबामा की खास खास नीतियों से ये
प्रभावित होंगी। तो एक दिन यूँ ही मैंने उनसे पूछ लिया की बताइये ओबामा की कौन सी पॉलिसी
आपको पसंद है? ये बात उन दिनों की है जब भाईजान नए - नए प्रेसिडेंट बने थे। उनका जबाब
था - वो कितना क्यूट,हैंडसम, फिट, और स्मार्ट लगता है ना सर! आई लाइक दिस गाई। मतलब
ये कि कभी-कभी भंगिमाएँ भी बड़े काम की होती हैं। पर हम तो इस बात के लिए भी तरश कर
रह जाते हैं काश कभी तो हमारा कोई प्रधानमंत्री होता जो चाल ढाल में ओबामा,ब्लेयर,बुश,क्लिंटन नुमा होता। सनद रहे कि इन सभी नामों के चाल ढाल तो भारत में चल सकते हैं पर एकाध के चरित्र
चलने में संदेह है। अपने प्रधान ने भी परमाणु करार में ऐसी चुस्ती दिखाई थी, तब कितने तो
युवा लगने लगे थे ये कि मन मिस्टर प्राइम मिनिस्टर कहने के लिए हुड़कने लगा था, जबकि इस
ससुरी अंग्रेजी में मेरा लिख लोढ़ा पढ़ पत्थर वाला हाल है। लगता है फिर एक बार माननीय प्रधानमंत्री
को मिस्टर प्राइम मिनिस्टर कहने का वक़्त आने वाला है, कारण के ग़लत सही को गोली मारें।
कभी तो लगे कि घर के मुखिया को रीढ़ है।
रही मेरे जैसे बेकार लोगों की बात तो मैं इतना ही अर्थशास्त्र जानता और जानना चाहता हूँ कि
हे बादशाह सलामत जो भी नीति बनाएं उससे मुझ और मेरे गॉव के नागो जैसे लोगों के दो वक़्त
के रोटी पानी का जुगाड़ बना रहे , वैसे ये भी पता है कि सरकार नीतियाँ बनाने का जुगाड़ करती
है रोटी-पानी का जुगाड़ खुद ही करना पड़ता है।
बात ये है कि बात शुरू से ही ग़लत है। वस्तुतः मेरे भीतर ये बात थी कि मैं प्रधानमंत्री की आलोचना
करूँ। बात बड़ी सीधी है, मेरे जैसा टुच्चा आदमी खुद तो बड़ा बन नहीं सकता, लिहाजा इस
सिद्धांत में विश्वास करता है कि बड़े की आलोचना करो और मन ही मन बड़े बनो। लेकिन ये
संत कबीर और भक्त तुलसी का जमाना तो है नहीं , ये तो चकाचक लोकतंत्र है। और मैं डर गया,
लोकतंत्र ने ऐसा डपटा कि जो कुछ दिमाग में था कहीं और घुस गया। अब तो मुझे पता ही नहीं कि
क्या सोच कर लिखने बैठा था और क्या क्या लिख गया। फिर भी इसे मिटाऊंगा नहीं,कम से
कम डर की हकलाहट तो इसमें दर्ज है। वैसे भी मैं ये जनता हूँ कि और जो भी हो हमारे प्रधान संत
टाईप आदमी हैं और मैं दुष्ट,कुटिल खल,कामी टाईप। ऐसे ही महान संतों की सहिष्णुता के विषय में
भक्त शिरोमणि तुलसी कह गए हैं -
बुंद अघात सहहिं गिरि तैसे , खल के वचन संत जन जैसे।

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